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आशा का फैल रहा हैंहै<br />
यह सूना नीला अंचल<br />
फिर स्वर्ण-सृष्टि-सी नाचे<br />
प्राची के अरुण मुकुर में<br />
सुन्दर प्रतिबिम्ब तुम्हारा<br />
उस अलस उषा ऊषा में देखूँ<br />
अपनी आँखों का तारा।<br />
<br />
जीवन-पथ चलते-चलते।<br />
<br />
ताराओ ताराओं की वे रातें<br />
कितने दिन-कितनी घड़ियाँ<br />
विस्मृति में बीत गई वेगईं वें<br />
निर्मोह काल की कड़ियाँ<br />
<br />
जैसे जीवन का जलनिधि<br />
बन अंधकार उर्मिल हो<br />
आकाशदीपआकाश दीप-सा तब वह<br />
तेरा प्रकाश झिलमिल हो।<br />
<br />
हैं पड़ी हुई मुँह ढककर<br />
मन की जितनी पीड़ाएँ<br />
वे हँसने लगें लगीं सुमन-सी<br />
करती कोमल क्रीड़ाएँ।<br />
<br />
जीवन ही हो न अकेले।<br />
<br />
हे जन्म -जन्म के जीवन<br />
साथी संसृति के दुख में<br />
पावन प्रभात हो जावे<br />
<br />
देखा तुमने तब रुककर<br />
मानस कुमुदो कुमुदों का रोना<br />
शशि किरणों का हँस-हँसकर<br />
मोती मकरन्द पिरोना।<br />
श्यामल उगने पाती है<br />
जो जनपद परस तिरस्कृत<br />
अभिशप्त कही जाती हैं।है।<br />
<br />
कलियों को उन्मुख देखा<br />
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