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08:59, 14 अप्रैल 2007
सर पे छत, पाँवों तले हो बस गुज़ारे भर ज़मीनकाश हो हर आदमी को सिर्फ इतना सा यक़ीनहमको मरने के लिए कुछ ज़िंदगी भी चाहिए
मुझसे जो आँखें मिलाकर मुस्कुरा दे एक बारक्या कहीं पर भी नहीं तीरगी मंज़ूर है वो ख़ुशी, वो नाज़नीनपर रोशनी भी चाहिए
जो बड़ी मासूमियत से छीन लेता है क़रार
उसके सीने में धड़कता दिल है या कोई मशीन
पूछती रहती है मुझसे रोज़ नफ़रत की नज़र
कब तलक देखा करोगे प्यार के सपने हसीन
वक़्त रूह की कारीगरी हर बात मानें हम ज़रूरी तो नहीं कुछ तो आज़ादी हमारे जिस्म को कैसे समझोगे परागभी चाहिएअक़्ल मोटी है तुम्हारी जीतने भर से लड़ाई ख़त्म हो जाती नहीं हार का अहसास कुछ तो जीत को भी चाहिए उम्र के हर दौर को भरपूर जीने के लिए थोड़ा गम़ भी चाहिए, काम उसका थोड़ी ख़ुशी भी चाहिये प्यास बुझने का तभी सुख है महीनकि बाक़ी भी रहे तृप्ति के एहसास में कुछ तिश्नगी भी चाहिये दर्द ही काफ़ी नहीं है शायरी के वास्ते कुछ सदाक़त और आवारगी भी चाहिये हम ख़ुदा से उम्र भर लड़ते रहे यूँ तो पराग पर वो कहते हैं कि थोड़ी बंदगी भी चाहिए