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11:07, 9 जून 2010 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=चंद्रभानु भारद्वाज
|संग्रह=
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<poem>
तनिक सरहदें लाँघ कर देखते हैं;
उधर की हवा झाँक कर देखते हैं।
मरीं हैं कि जिन्दा हैं संवॅदनाऍं ,
कहीं लाश इक टाँग कर देखते हैं।
खुली लाश मरघट तलक क्या उठाऍं,
किसी से कफन मांग कर देखते हैं।
पटी खाइयाँ या हुईं और चौड़ी ,
इधर से उधर फाँद कर देखते हैं।
किनारे कहाँ तक सँभालॅ रखेंगे,
उफनती नदी बाँध कर देखते हैं।
समय ने हमें सिर्फ रॅवड़ बनाया,
सभी हर तरफ हाँक कर देखते हैं।
'भारद्वाज' है प्रेम किसको वतन से,
चलो एक सर माँग कर देखते हैं।
</poem>
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