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वरुण / सुमित्रानंदन पंत

No change in size, 11:55, 9 जून 2010
पाप निवारक हे प्रकाश से भर मेरा मन!
ऊपर और खुलें ये पाश गुणों के उत्तम
नीचे प्रधम प्रथम मध्य में हों श्लथ बंधन मध्यम!
अंत प्राण मन सत रज तम का ही रूपांतर
हम चिर अकलुष बनें प्रदिति का आश्रय पाकर!
यह मानव तम सतत सप्त ऋषियों से रंजित
चैत्य प्राण जिसमें सुषुप्ति में भे से चिर जागृत!
सदा भद्र संकत्या से हम हों परिपोषित
देवों को पर कर तृप्त रहें निज सरल, हृष्ट चित!
भद्र सुनें ये श्रवण भद्र देखें ये लोचन
स्थिर अंगों से सदा सत्य पथ करें जन ग्रहण!
ऋजु प्रिय देव सखा बन रहें सुरा से विष्टितवेष्टित
उनकी भद्रा सुमति करे सब की रक्षा नित!
पृथ्वी द्यो औ’ अंतरिक्ष की समिधा निश्चित
श्रम से तप से अमृत ज्योति का पावें हम नित!
</poem>
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