{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत}}{{KKCatKavita}}<poem>#REDIRECT [[आज रहने हो दो यह गृहकाज प्राण! रहने हो यह गृहकाज! आज जाने कैसी वातास छोड़ती सौरभगृह-श्लभ उच्छ्वास, प्रिये, लालस-सालस वातास, जगा रोओं में सौ अभिलाष! आज उर के स्तर-स्तर में, प्राण! सहज सौ-सौ स्मृतियाँ सुकुमार, दृगों में मधुर स्वप्न संसार, मर्म में मदिर स्पृहा का भार! शिथिल, स्वप्निल पंखड़ियाँ खोल, आज अपलक कलिकाएँ बाल, गूँजता भूला भौरा डोल, सुमुखि, उर के सुख से वाचाल! आज चंचल-चंचल मन प्राण, आज रे, शिथिल-शिथिल तन-भार, आज दो प्राणों का दिन-मान आज संसार नही संसार! आज क्या प्रिये सुहाती लाज! आज रहने दो सब गृहकाज! <काज /poem>सुमित्रानंदन पंत]]