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{{KKRachna
|रचनाकार=सर्वत एम जमाल
}}
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<poem>
मैं भी इस दौर के बशर सा हूँ
आँखें होते हुए भी अँधा हूँ

मेरी हालत भी धान जैसी है
पक रहा हूँ, नमी में डूबा हूँ

जब मैं सहरा था, तब ही बेहतर था
आज दरिया हूँ और प्यासा हूँ

जबकि सुकरात भी नहीं हूँ मैं
फिर भी हर रोज़ जहर पीता हूँ

आप के भक्त हार जाएंगे
आप भगवान हैं, मैं पैसा हूँ

मेरे हमराह मेरा साया है
और तुम कह रहे हो, तन्हा हूँ

मैं ने सिर्फ एक सच कहा लेकिन
यूं लगा जैसे इक तमाशा हूँ

मैं न पंडित, न राजपूत, न शेख
सिर्फ इन्सान हूँ मैं, सहमा हूँ </poem>
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