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{{KKRachna
|रचनाकार=सर्वत एम जमाल
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गर हवा में नमी नहीं होती
एक पत्ती हरी नहीं होती


आप किसके लिए परीशां हैं
आग से दोस्ती नहीं होती


हाकिमे-वक्त को सलाम करें
हम से यह बुजदिली नहीं होती


कुछ घरों से धुंआ ही उठता है
हर जगह रोशनी नहीं होती


होंगे सच्चाई के मुहाफिज़ आप
सब पे दीवानगी नहीं होती


साए जिस्मों से भी निकलते हैं
किस जगह तीरगी नहीं होती


सब की चौखट पे सर झुकाते फिरो
इस तरह बन्दगी नहीं होती

मसअले हैं तो इनका हल ढूंढो
फ़िक्र आवारगी नहीं होती

जहन तो सोचने की खातिर है
हम से यह भूल भी नहीं होती

हादसों का तुम्हीं करो मातम
हम से संजीदगी नहीं होती </poem>
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