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|रचनाकार=कविता किरण
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ख़्वाब आते रहे ख़्वाब जाते रहे
नींद ही में अधर मुस्कुराते रहे

सुरमई साँझ इकरार की थी मगर
रस्म इनकार की हम निभाते रहे

चांदनी रात में कांपती लहरों को
कंकरों से निशाना बनाते रहे

बोझ शर्मो-हया का ही हम रात-भर
रेशमी नम पलक पर उठाते रहे

उनके बेबाक इजहारे-उल्फत पे बस
दांत में उँगलियाँ ही दबाते रहे

वक़्त की बर्फ यूँ ही पिघलती रही
वो मनाते रहे हम लजाते रहे

ऐ "किरण" रात ढलती रही हम फ़क़त
रेत पर नाम लिखते मिटाते रहे
</poem>
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