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{{KKRachna
|रचनाकार=ओमप्रकाश यती
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न शाहों में है ना अमीरों में है
जो देने की कुव्वत फ़कीरों में है

मैं मंज़िल की परवाह करता नहीं
मेरा नाम तो राहगीरों में है

जो हासिल न थी बादशाहों को भी
वो ताक़त यहाँ अब वज़ीरों में है

वतन के लिए दे गया जान जो
वो ज़िंदा अभी भी नज़ीरों में है

हथेली बता किस तरह से जिऊँ
अभी और क्या-क्या लकीरों में है

</poem>
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