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{{KKRachna
|रचनाकार=परवीन शाकिर
|संग्रह=खुली आँखों में सपना / परवीन शाकिर
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<poem>
क्या करे मेरी मसीहाई भी करने वाला
ज़ख्म ही ये मुझे लगता नहीं भरने वाला

उसको भी हम तिरे कूचे में गुज़ार आये हैं
जिंदगी में वो जो लम्हा था संवरने वाला

उसका अंदाज़ ए सुख़न सबसे जुदा था शायद
बात लगती हुई लहजा वो मुकरने वाला

शाम होने को है और आँख में इक ख़्वाब नहीं
कोई इस घर में नहीं रोशनी करने वाला

दस्तरस में हैं अनासिर के इरादे किसके
सो बिखर के ही रहा कोई बिखरने वाला

इसी उम्मीद पे हर शाम बुझाये हैं चिराग़
एक तारा है सर ए बाम उभरने वाला
</poem>
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