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{{KKRachna
|रचनाकार=परवीन शाकिर
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<poem>
मोती हार पिरोये हुए
दिन गुजरे हैं रोये हुए

नींद मुसाफिर को ही नहीं
रस्ते भी हैं सोये हुए

जश्न ए बहार में आ पहुंचे
ज़ख्म का चेहरा धोये हुए

उसको पाकर रहते हैं
अपने आप में खोये हुए

कितनी बरसातें गुजरीं
उससे मिलकर रोये हुए
</poem>
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