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मोती हार पिरोये हुए / परवीन शाकिर
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<poem>
मोती हार पिरोये हुए
दिन गुजरे हैं रोये हुए
नींद मुसाफिर को ही नहीं
रस्ते भी हैं सोये हुए
जश्न ए बहार में आ पहुंचे
ज़ख्म का चेहरा धोये हुए
उसको पाकर रहते हैं
अपने आप में खोये हुए
कितनी बरसातें गुजरीं
उससे मिलकर रोये हुए
</poem>
Shrddha
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