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{{KKRachna
|रचनाकार=परवीन शाकिर
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<poem>
दुनिया को तो हालात से उम्मीद बड़ी थी
पर चाहने वालों को जुदाई की पड़ी थी

किस जान ए गुलिस्ताँ से ये मिलने की घड़ी थी
ख़ुशबू में नहाई हुई इक शाम खड़ी थी

मैं उससे मिली थी कि खुद अपने से मिली थी
वो जैसे मिरी जात की गुमगश्ता कड़ी थी

यूँ देखना उसको कि कोई और न देखे
इनआम तो अच्छा था मगर शर्त कड़ी थी
</poem>
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