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{{KKRachna
|रचनाकार=परवीन शाकिर
|संग्रह=खुली आँखों में सपना / परवीन शाकिर
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<poem>
बाद मुद्दत उसे देखा, लोगों
वो ज़रा भी नहीं बदला, लोगों

खुश न था मुझसे बिछड़ कर वो भी
उसके चेहरे पे लिखा था लोगों

उसकी आँखें भी कहे देती थीं
रात भर वो भी न सोया, लोगों

अजनबी बन के जो गुजरा है अभी
था किसी वक़्त में अपना, लोगों

दोस्त तो खैर, कोई किस का है
उसने दुश्मन भी न समझा, लोगों

रात वो दर्द मेरे दिल में उठा
सुबह तक चैन न आया, लोगों
</poem>
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