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{{KKRachna
|रचनाकार=राजेन्द्र स्वर्णकार
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<poem>
कहाँ लिख दूँ , यहाँ लिख दूँ , जहाँ कह दो , वहाँ लिख दूँ
ख़ुदा लिख दूँ तुम्हें मैं , मालिक -ए- दोनों जहाँ लिख दूँ

इजाज़त हो अगर , तुमको मैं अपना मेहरबां लिख दूँ
तुम्हारा हो रहूं , ख़ुद को तुम्हारा राज़दां लिख दूँ

तबस्सुम को तुम्हारी , मुस्कुराती कह्कशां लिख दूँ
तुम्हारे जिस्म को ख़ुश्बू लुटाता गुलसितां लिख दूँ

अदब से सल्तनत -ए- हुस्न की मलिका तुम्हें लिख दूँ
वफ़ा से ख़ुद को मैं ख़ादिम तुम्हारा पासबां लिख दूँ

तुम्हीं नज़रों में , ख़्वाबों में , ख़यालों में, तसव्वुर में,
मेरे अश्आर , जज़्बों में , तुम्हें रूहे - रवां लिख दूँ

गुलाबों - से मुअत्तर हों, हो जिनकी आब गौहर - सी
कहां से लफ़्ज़ वो लाऊं … तुम्हारी दास्तां लिख दूँ

सुकूं भी मिल रहा लिख कर, परेशानी भी है क़ायम
इशारों में, बज़ाहिर क्या, निहां क्या, क्या अयां लिख दूँ

यूं मैंने लिख दिया है दिल तुम्हारे नाम पहले ही
कहो तो धड़कनें भी… और सांसें , और जां लिख दूँ

मिटा डालूं लुग़त से लफ़्ज़ , जो इंकार जैसे हैं
तुम्हारे हुक़्म की ता'मील में , मैं हाँ ही हाँ लिख दूँ

मैं क़ातिल ख़ुद ही हूं अपना, तुम्हारा पाक है दामन
ये दम निकले, मैं उससे पेशतर अपना बयां लिख दूँ

दुआओं से तुम्हें राजेन्द्र ज़्यादा दे नहीं सकता
यूं कहने को तुम्हारे नाम मैं सारा जहाँ लिख दूँ
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