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07:59, 14 जून 2010 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=राजेन्द्र स्वर्णकार
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<poem>
मुझे तू ख़ार ही देना, गुलों के हार मत देना
मगर उंगली उठे ऐसा मुझे किरदार मत देना
तेरे दर का सवाली हूं, निशानी दे कोई मुझको
कराहत दे मुझे बेशक मुहब्बत प्यार मत देना
हुनर-ओ-हौसलों से मैं करूँगा तय सफ़र तनहा
बरगला दें मुझे हर मोड़ पर… वो यार मत देना
मैं आजिज़ आ गया हूँ देख सुन हालात दुनिया के
मेहरबानी… मेरे हाथों में अब अख़बार मत देना
जो कासिद की तसल्ली की बिना पर ख़त तुम्हें भेजा
वो आतिश के हवाले कर कहीं सरकार मत देना
जहाँ को बाँट, फ़िरकों में, दिलों को चाक जो करते
पयंबर पीर ऐसे औलिया अवतार मत देना
जियें दाना ओ पानी पर मेरे , घर में रहें मेरे
यक़ीं के जो न हों क़ाबिल वो हद ग़द्दार मत देना
वतन को बेच दे राजेन्द्र जो अपनी सियासत में
वो ख़िदमतगार मत देना, अलमबरदार मत देना
</poem>
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