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{{KKRachna
|रचनाकार=परवीन शाकिर
|संग्रह=खुली आँखों में सपना / परवीन शाकिर
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<poem>
फिर तेरे शहर से गुज़रा है वो बादल की तरह
दस्त ए गुल फैला हुआ है मिरे आँचल की तरह

कह रहा है किसी मौसम की कहानी अब तक
जिस्म बरसात में भीगे हुए जंगल की तरह

ऊँची आवाज़ में उसने तो कभी बात न की
खफगियों में भी लहजा रहा कोमल की तरह

पास जब तक वो रहे दर्द थमा रहता है
फैलता जाता है फिर आँख के काजल की तरह

अब किसी तौर से घर जाने की सूरत ही नहीं
रास्ते मेरे लिए हो गए दलदल की तरह
</poem>
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