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{{KKRachna
|रचनाकार=परवीन शाकिर
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<poem>
सोचूँ तो वो साथ चल रहा है
देखूँ तो नज़र बदल रहा है

क्यों बात ज़बां से कहके कोई
दिल आज भी हाथ मल रहा है

रातों के सफ़र में वहम सा था
ये मैं हूँ कि चाँद चल रहा है

हम भी तिरे बाद जी रहे हैं
और तू भी कहीं बहल रहा है

समझा के अभी गई हैं सखियाँ
और दिल है कि फिर मचल रहा है

हम ही बड़े हो गए कि तेरा
मेयार ए वफ़ा बदल रहा है

पहली सी वो रोशनी नहीं अब
क्या दर्द का चाँद ढल रहा है
</poem>
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