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{{KKRachna
|रचनाकार=परवीन शाकिर
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<poem>
हवा की धुन पर बन की डाली डाली गाये
कोयल कूके जंगल की हरियाली गाये

रुत वो है जब कोंपल की ख़ुशबू सुर माँगे
पुरवा के हमराह उमरिया बाली गाये

मोरनी बनकर पुरवा संग मैं जब भी नाचूँ
पूर्व भी बन में मतवाली होकर गाये

रात गए मैं बिंदिया खोजने जब भी निकलूँ
कंगन खनके और कानों की बाली गाये

रंग मनाया जाए ख़ुशबू खेली जाए
फूल हँसे पत्ते नाचें और माली गाये
</poem>
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