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लेखक: [[भवानीप्रसाद मिश्र]]
[[Category:भवानीप्रसाद मिश्र]]

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झुर्रियों से भरता हुआ मेरा चेहरा<br>
पहरा बन गया है मानो<br>
तरुण मेरी इच्छाओं पर<br>
बरबस रुक जाता हूँ<br>
कदम उठाकर भी<br>
किसी ऊँचाई की ओर<br>
विरस होकर लहरें<br>
लौट जाती हैं टकराकर पाँवों से<br>
जो मजबूत हैं अभी<br>
मगर मुँह ताकते हैं जो<br>
धसने के पहले<br>
झुर्रियों से भरे मेरे चेहरे का<br>
गहरे जल का डर पाँवों को नहीं है<br>
छाती को है<br>
नाती का है जैसे दादा का डर<br>
झुर्रियों से भरा मेरा चेहरा<br>
नन्हीं नन्हीं इच्छाओं पर तन गया है<br>
नया और अच्छा है यह अनुभव<br>
लवकुश इच्छाओं के<br>
पकड़ेंगे शायद घोड़े अश्वमेध के<br>
साधारणतया खेद के पहले है जो<br>
बनेगे वे गौरव के निधान<br>
आत्मसम्मान या आत्मा का<br>
शरीर से जीतेगा<br>
दुविधा का एक और वक्त<br>
बीतेगा।<br><br>
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