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नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजय वाते |संग्रह= दो मिसरे / विजय वाते;ग़ज़ल / वि…
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{{KKRachna
|रचनाकार=विजय वाते
|संग्रह= दो मिसरे / विजय वाते;ग़ज़ल / विजय वाते
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
कब कहा है गलतियों कि कोई समझाइश न हो
आदमी के कद कि लेकिन रोज पैमाईश न हो
दीप यों ही जगमगाएं इस दिवाली की तरह
तीरगी की आपके जीवन में गुंजाईश न हो
चाहते हैं सब कि बदले ये अंधेरों का निजाम
पर हमारे घर किसी बागी कि पैदाईश न हो
हो अगर काबिल बहस जो मुद्दआ तो ठीक है
वरना यूँ ही बेवजह की जोर आजमाईश न हो
सब वही हैं फिर मुझे क्यूं यूँ लगा करता "विजय"
जैसे कुछ अपना नहीं हो एक भी ख्वाहिश न हो
</poem>
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|रचनाकार=विजय वाते
|संग्रह= दो मिसरे / विजय वाते;ग़ज़ल / विजय वाते
}}
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कब कहा है गलतियों कि कोई समझाइश न हो
आदमी के कद कि लेकिन रोज पैमाईश न हो
दीप यों ही जगमगाएं इस दिवाली की तरह
तीरगी की आपके जीवन में गुंजाईश न हो
चाहते हैं सब कि बदले ये अंधेरों का निजाम
पर हमारे घर किसी बागी कि पैदाईश न हो
हो अगर काबिल बहस जो मुद्दआ तो ठीक है
वरना यूँ ही बेवजह की जोर आजमाईश न हो
सब वही हैं फिर मुझे क्यूं यूँ लगा करता "विजय"
जैसे कुछ अपना नहीं हो एक भी ख्वाहिश न हो
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