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ना हो / विजय वाते

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<poem>
कब कहा है गलतियों कि कोई समझाइश न हो
आदमी के कद कि लेकिन रोज पैमाईश न हो

दीप यों ही जगमगाएं इस दिवाली की तरह
तीरगी की आपके जीवन में गुंजाईश न हो

चाहते हैं सब कि बदले ये अंधेरों का निजाम
पर हमारे घर किसी बागी कि पैदाईश न हो

हो अगर काबिल बहस जो मुद्दआ तो ठीक है
वरना यूँ ही बेवजह की जोर आजमाईश न हो

सब वही हैं फिर मुझे क्यूं यूँ लगा करता "विजय"
जैसे कुछ अपना नहीं हो एक भी ख्वाहिश न हो
</poem>