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Kavita Kosh से
सचमुच, मिथक बन चुकी नदियों के
कंकाल में बहने लगे हैं
सच, असंख्य धारवियाँ गंगाजमुना की कंकाली पिंजर में
आरम्भ से अंत तक प्रवाहमान हैं
जो कुछ यूं लगता है कि जैसे
बूढ़ी लाशों के साथ व्यभिचार किया जा रहा हो
इन तरलजनों की बहते रहने की इच्छा ही
चला रही है शहरी रेला,
जहां धक्कमपेल दिशाहीन चलते जाना
हर पल कुछ इंच आगे या पीछे विस्थापित होना
और तालियाँ बजाकर खुद का स्वागत करना
यही हमारी नियति है