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कुछ नहीं / रमेश कौशिक

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'''कुछ नहीं'''

एक विश्वास था
जो मेरे पास था

जिन्दगी के आख़िरी वक्त में
उसको भी
तुमने तोड़ा।

चलो अच्छा हुआ
जो कहने के लिए
अब कुछ नहीं छोड़ा। </poem>
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