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औरत / मनोज श्रीवास्तव

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'''औरत-२ त्योहार के दिन'''

वह बनाती है
त्योहार को त्योहार,
बच्चे उसे रसोई से ओसारे
बैठक से जीने
शौचालय से गुशलखाने
भोजनकक्ष से आंगन तक
एक ही समय में मौज़ूद पाकर
किलकते हैं,
त्योहार में शरीक़ होने का
वाक़ई लुत्फ़ लेते हैं,
अंगडाइयों से जम्हाइयों तक
उसे गुहार-मनुहार
अपने पास पाते हैं

अन्यथा, वे चिचियाते हैं
रुदन करते हैं
हुल्लड मचाते हैं,
'पहले हम', 'पहले हम'
घिघियाते हैं,
रिरियाते हैं
और चकरघिन्नी मां
नाचती है उनके आस-पास
सुबह से रात

पति की भृकुटियों से
जुडा हुआ है
उसकी सक्रियता का तार
और वह--
चुस्कियां लेते अखबार पढते
राजनीतिक लफ़्फ़ाज़ी करते
अपने महापुरुष से
भींगी बिल्ली सरीखी
कातर याचना करती है--
'आप निपट लें, नहा लें
कपडे-वपडे बदल लें
तो तो मुझे कुछ फ़ुरसत '
पर, वह आग बन
ऐसे भडक उठता है
कि उसकी आंच से
वह पसीने-पसीने हो जाती है

खैर, यह तो रोज़मर्रा है
वह बुरा नहीं मानती है
क्योंकि आज त्योहार है,
उसे सभी का मूड बनाए रखना है
अरे हां! आशीष-बख्शीश के लिए
पूरे दिन खटना-मरना है
सुर कतई नहीं भूलना है
कि आज
पूरे घर का त्योहार है

कोई बात नहीं
फ़ुरसत मिलने पर
वह शाम को ही नहा लेगी
कपडे बदलकर त्योहार मना लेगी

पर, आज वह ठीक दस बजे रात
ज़िम्मेदारियों से पाकर निज़ात
ड्योढी पर खडी
शायद!
पछता रही है--
कि उसमे क्या कमी रह गयी
कि उसका परिवार
मजे से मना न पाया त्योहार

हां, वह
पछता-पछता पछता रही है,
त्योहार की धमाचौकडी से थाके-मांदे
नाक बजा रहे हैं--
उसके आदमी और बच्चे,
वह उनके कदमों तले
सोना चाह रही है,
बेशक! वह सिसक-सुबक नहीं रही है
पर, इस पर्व की स्मृतियां
अगले साल के लिए सहेज रही है
और खुश होकर
फुलझडी हो रही है
मन ही मन
बीते त्योहार का
स्वाद चख रही है।