Changes

<poem>
'''पतंग पर्व'''
(विशेषतया, पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिलों में मकर संक्रान्ति अर्थात 'खिचडीखिचड़ी' के पर्व पर पतंग उडाने उड़ाने की परम्परा रही है। कवि के बचपन की कतिपय स्मृतियां इस पर्व के साथ जुडी जुड़ी हुई हैं। कवि की बाल्यावस्था का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा जौनपुर में गुजरा है।)
पतंग जूझती हैं
हवाई थपेडों थपेड़ों से,
हमारी खुशियों की
गठरी लादे हुए
किसी गुप्त भाषा में
और हमारी दीवानगी की
खूब उडाती उड़ाती है खिल्लियां,
गुरूर-गुमान से
घुमाती हुई अपना सिर
लुभाती-ललचाती है,
चिढातीचिढ़ाती-चिलबिलाती है
मचल-मचल,
छपाक-छपाक उछल
सुदूर नभीय झील में
कि आओ!
अथक उडोउड़ो
और छा जाओ,
छू लो हमें स्वच्छन्द
क्षितिजीय सीमाओं से
हम आंखें फोड फोड़ लेते हैं
उन्हें एकटक
देखते-देखते
दादुरी झुण्ड,
जैसे जम्हाती संध्या में
झींगुरों की झन-झन
खिलन्दडी खिलन्दड़ी पतंग
नहीं उतरती है खरी
हमारी डुबडुबाती
भावनाओं पर,
खूब लडतीलड़ती-झगडती झगड़ती है
अपनी दुश्मन पतंगों से,
छल-युद्ध करके
कभी मैदान छोडछोड़
भागने का बहाना बना करके
फिर, वापस टूट पडती पड़ती है
अपने प्रतिद्वन्द्वी पर।
(रचना काल: फ़रवरी, १९९९)