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आग़ाज़ / रेणु हुसैन

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आग़ाज़

दरिया हो ख़ामोश तो मत समझो
कि उसमें रवानी नहीं है

हम हैं अपने फर्ज़ से मज़बूर
मत समझो कि जोश-ए-जवानी नहीं है

हम हैं लहरें किसी बेचैन समंदर की
उठे तो तूफान बनके उट्ठेंगे
अभी हमने उठने की ठानी नहीं है।
<poem>
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