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ग़ज़ल-चार / रेणु हुसैन

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कश्ती नहीं कोई मगर उस पार जाना है
रेत पर ही सही लेकिन घर बनाना है

बहुत मुश्किल ही सही, तन्हा सफ़र करना
चल पड़े इक बार तो चलते ही जाना है

ये ज़िन्दगी जैसे कोई, फैला हुआ जंगल
हर किसी को अपना रास्ता खुद बनाना है

दर्द में आंखों से आंसू आ ही जाते हैं
पर अजब शै आंसुओं का मुस्कुराना है

कितने सितारे आसमां में है मगर
इक सितारा हमको भी इसमें सजाना है
<poem>
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