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14:16, 29 जून 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कर्णसिंह चौहान
|संग्रह=हिमालय नहीं है वितोशा / कर्णसिंह चौहान
}}
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<poem>
गर्ज रहा है काला सागर
उठ रहीं उद्दाम लहरें
ध्वस्त तटबंध
निर्मूल जंगल झाड़ ।
पता नहीं क्या बचेगा
साबुत, सुरक्षित ।
इस अंधेरे में
बिला गया जार्जिया
बल्गारिया, रुमानिया
मंझधार में डोलती वह कश्ती ।
भयंकर है बंधे सागर की पीड़ा
छोड़ रहा धीरज
उफन रहा है काला सागर ।
<poem>