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आराधाना / कर्णसिंह चौहान

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<poem>

घर से निकले
तो धुंध ही धुंध थी
चारों ओर

रहस्य में लिपटा सब
मन में अनंत जिज्ञासा
ललक, अभिलाषा
फूल सा खिला मन
नई कोंपल सा
विकसता तन ।

कितना छोटा है
यह खुला आकाश
उसांस भरने को
कितने मंथर हैं
मदमाते बादल
इतर लोकों में जाने को
कितनी उथली है हवा
मंद राग गुनगुनाने को
हंसी का उजास
और कोंपलों से फूटती
आभा
समो लेगी सब कुछ
बस होगा अनंत एकांत
हम-तुम
और यह अटूट रहस्य ।

अब घर लौटे हैं
मिठास से भरे हुए
ठोस और मूर्त
घना हो आया है कोहरा
आकाश, बादल और हवा
हस्तामलकवत
शेष बची
यह मूर्ति
आराधन बन गई है ।
<poem>
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