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06:37, 1 जुलाई 2010 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार= मनोज श्रीवास्तव
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<poem>
'''दिन-रात बसर करते हैं--गज़ल'''
जो मेरे साथ दिन-रात बसर करते हैं
लोग उन्हें मेहमान कहते हैं
जिनके लफ्ज़ों से मेरी रूह के कतरे बिखरे
लोग उन्हें बेज़ुबान कहते हैं
जिनकी रुस्वाइयाँ मैने पचाई थक-छक कर
वो मुझे पीकदान कहते हैं
जिनकी राहों से कांटे बटोरे चुन-चुन कर
वो मुझे कूड़ादान कहते हैं
जिनके अस्मत को सींचा खुद लाहु के चश्मों से
वो इसे रक्त-दान कहते हैं