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{{KKRachna
|रचनाकार=गोबिन्द प्रसाद
|संग्रह=मैं नहीं था लिखते समय / गोबिन्द प्रसाद
}}
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<poem>
तुम्हारी देह के भीतर
उमड़ते हैं कितने सागर
सदियों से
कितने ज्योति-पिण्ड
तुम्हारी देह के भीतर
दहकते हैं सदियों से
कहाँ से तुम आयी हो
किस ब्रहमाण्ड की सूर्य-तनया हो तुम
कि हवाओं को तुमने बाँध लिया है
अपनी भंगिमा की लय पर
स्वरों के जलते-बलते दीये भी अब ठहर गये हैं
अधरों पर
आकाश भी आईना बनकर उतर रहा है
रक्ताभ हो चले नेत्रों में
छलक रहा है राग
पृथ्वी के सहस्र प्रतिबिम्बों से लिपटी
तुम्हारी रहस् काया
सृष्टि का नया अध्याय रचेगी!
<poem>
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|संग्रह=मैं नहीं था लिखते समय / गोबिन्द प्रसाद
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तुम्हारी देह के भीतर
उमड़ते हैं कितने सागर
सदियों से
कितने ज्योति-पिण्ड
तुम्हारी देह के भीतर
दहकते हैं सदियों से
कहाँ से तुम आयी हो
किस ब्रहमाण्ड की सूर्य-तनया हो तुम
कि हवाओं को तुमने बाँध लिया है
अपनी भंगिमा की लय पर
स्वरों के जलते-बलते दीये भी अब ठहर गये हैं
अधरों पर
आकाश भी आईना बनकर उतर रहा है
रक्ताभ हो चले नेत्रों में
छलक रहा है राग
पृथ्वी के सहस्र प्रतिबिम्बों से लिपटी
तुम्हारी रहस् काया
सृष्टि का नया अध्याय रचेगी!
<poem>