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मुखौटे / गोबिन्द प्रसाद

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सवाल शेर,चीता,भालू या बन्दर के
मुखौटे लगाने का नहीं है
न इससे घबराने की ज़रूरत है कि
आदमी के चेहरे पर किसका मुखौटा है
मुखौटा तो यहाँ हर चीज़ ने पहन रखा है
देवताओं तक ने भी
लेकिन गड़बड़ तब होती है जब मुखौटे बदल जाएँ
और शेर की गरज के बजाय आप बन्दर की खों-खों करने लगें
तब दर्शक आपको विदूषक नहीं,महज़ नक़्क़ाल समझने लगते हैं
और नक़्क़ा लों की इस दुनिया में
भाँड से ज़्यादह जगह नहीं है और न है औक़ात
मुखौटों का महत्व तो उन भूमिकाओं में ही रहता है
जिन्हें सच मानकर आपने धारण किया और निभाया अन्त तक
एक आस्था की तरह-
यह खेल नहीं है यद्यपि यह सब
एक खेल की तरह ही होता है शुरू
यह आप जानते ही हैं कि
बिना आस्था की डोर के तो पतंग भी आकाश में नहीं उड़ती
यहाँ तक कि जिसे कहते हैं ईश्वर की पतंग सो वह भी
मनुष्य रूपी डोर के ही हाथों उड़ती है
इसलिए मुखौटे तो लगाने ही पड़ते हैं
यह और बात है कि अपनी बात कहने के लिए
और चण्डालों से भरी
इस दुनिया में जीने के लिए
कभी कभी भगवान को भी इन्सान का मुखौटा लगाना पड़ता है
मुखौटे तो जीवन में आते हैं
उस पार का सच दिखाने के लिए
वे आते हैं उस पार की क़लई खोल देने के लिए
जो भरम तोड़ना चाहते हों वे मंच पर आएँ
और मुखौटा पहनें और दुनिया को जानें
दुनिया के नेपथ्य को जानने का
इससे बेहतर तरीक़ा और क्या हो सकता है
सिद्धस्त कलाकार बिना मुखौटा पहने ही
समझने लगते हैं दुनिया की हक़ीक़त
मुखौटे की व्यर्थता किसी-किसी बिरले कलाकार को ही
समझ में आती है
लम्बे समय तक पात्र की भूमिका में ही रहकर
उद्घा टित होता है जीवन का मर्म,काँच के प्यालों का टूटना
इसलिए जीवन मुखौटा नहीं
मुखौटों के टूटने का सिलसिला है
तब शायद चेहरा और मुखौटा एक-दूसरे के इतने क़रीब
हो जाते हैं कि दुनिया के द्वैत मिटकर
चेहरा ही मुखौटा और मुखौटा ही चेहरा बन जाता है
हमेशा-हमेशा के लिए

जो नहीं है मुखौटा उस सच का है
लेकिन स्वाँग भरते-भरते अब चेहरा ही
मुखौटों का सिलसिला हो चला है, न ख़त्म होने वाला सिलसिला
हटाओ, अब इस खेल-तमाशे की ज़रूरत नहीं

<poem>
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