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कहाँ; अब / गोबिन्द प्रसाद

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तिपहर की धूप में
पत्तियाँ जो चमकती थीं
किसी प्रतीक्षा भरी दीठ-सी
स्वरों में उपज और उत्खनन का प्रकाश लिए
साँझ;जिनमें गमक और मीड़ के अनकहे बोल
छाये रहते थे सजल मेघ बन पुतलियों में
पेड़ पत्तियाँ पहाड़ सब रंगों की आभा में छन्द से
बज उठते थे
आज धुँधली-सी लकीर बन गये हैं सब
तुम्हारे जाने के बाद
स्मृति के सूने पन्ने पर
आसमान की स्वरलिपि में
कोई सम मुझे ढ़ूँढ़े नहीं मिलता
लय-सा सन्धान कहाँ;अब!
*पत्र में लिखी कविता अनिल त्रिपाठी के लिए
<poem>
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