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14:48, 4 जुलाई 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=गोबिन्द प्रसाद
|संग्रह=मैं नहीं था लिखते समय / गोबिन्द प्रसाद
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
ऐसा कुछ ज़रूर है
दुनिया में जिसकी परछाईं नहीं बनती
अक्सयर दुख भी
अपने लिए कोई साँचा तलाश कर लेते हैं
दुखों की फ़ितरत ही होती है
समय की गोद में बैठ कोई न कोई रूप धारण कर लेना
परछाईं से परे भी होती हैं
बहुत से दु:खों की आवाज़
आवाज़ें कहाँ चली जाती हैं
क्या वो सो जाती हैं चुप के सीने में
फाँस बनकर
हाँ,कुछ चीज़ें देह से परे ज़रूर हैं
जिनकी परछाईं नहीं होतीं
जैसे हवा का सिसकना
या किसी दु:ख का बेआवाज़ होते-होते
चीख़ में बदल जाना
तो उस चीख़ की परछाईं कहाँ हैं
कहाँ है उस सिसकने की परछाईं
<poem>