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|रचनाकार=गोबिन्द प्रसाद
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बुझते हुए दिन की जाती हुई धूप,द्वारों पर
कच्ची भूरी मटमैली दीवरों-उसारों पर
फैले सूख रहे कपड़े पिछ्वाड़े
जैसे खेलते बच्चों की किलकारी: आँगन में उदास थकी-हारी
जैसे आसमान में बिखरा
कोई बसा उजाड़ अकेला सूना
खण्डहर
जैसे अँधेरे में बोलता हो अपने से
ख़ामुशी में दूना

दिन जब शाम में ढलता है तो अकेले नहीं ढलता
उसके साथ ढलता है चराग़ों में नूर
उसके साथ ढलते हैं अनपहचाने दर्द के चमकते नुक़ूश
जिनका प्रार्थना स्वर
रात में जागी नदी-सा चमकता है
उसके साथ ढलते हैं राग,रूप-राशियाँ
मन्दिरों के तिसूल और कलश

ढलती है धुन
जिसमें आसमान के रंग जागकर
धरती की मद्धिम लय के साथ उतरते हैं
समुद्र की कोख में प्रकाश के पारावार तक
फिर ढलती हैं शब्द में छिपी आकांक्षाएँ
जो साँझ के समुद्र पर अर्थ की आभा बिछाती हैं
और फिर ढलता है रूपों से भरे रूप में
शब्दों से परे शब्द में
और कभी-कभी अनुभव में कुछ अनुभव से भी परे!

<poem>
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