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09:16, 5 जुलाई 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=गोबिन्द प्रसाद
|संग्रह=मैं नहीं था लिखते समय / गोबिन्द प्रसाद
}}
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<poem>
बाहर रोज़-ब-रोज़ बनता है
भीतर दिन-ब-दिन घटता है
मन से मन
आँखों से आँखें जुड़ती हैं
अक्षर से अक्षर मिलकर
मानो
सरित् सागर से
व्योम धरा से मिलता है
बाहर रोज़-ब-रोज़ बनता है
भीतर दिन-ब-दिन घटता है
<poem>