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बंधन / मनोज श्रीवास्तव

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'''बंधन '''

मैं बांधूंगा
खुद को
तुमसे,
ऐसे नहीं
जैसेकि
आत्मा बंधी है
शरीर से

तुम बदलोगी
गहने, कपड़े
जूतियां, चप्पलें
नखनुओं के रंग
बिंदिया-बिंदी
होठों के ढंग,
समय लिखेगा
तुम्हारी काया पर
झुर्रियां,
अपनी तूलिका से
केशों पर करेगा
श्वेत आलेप,
पर, नहीं पड़ेगा
यह बंधन ढीला

मैं बांधूंगा
अपने विचारों को
तुम्हारे चंचल भावों से
और हम उड़ेंगे
साथ-साथ
कल्पना-घन पर
होकर सवार
दुनिया की परिधि के पार
प्रकृति की
डांट-फटकार से
विरत होकर
हम विचरेंगे ऐसे
चुम्बकत्त्व जैसे
बेखटक तैरता है
अंतरिक्ष के आर-पार.