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Kavita Kosh से
ऊब गए थे
नफ़रत हो गई थी
इन्सानों से,
दुर्गम वनों, रेगिस्तानों में,
बनाने लगे थे अपने घर
हिम कंदराओं, पथरीली गुफाओं में,
और सागर-महासागर के मध्यस्थ,
रहने लगे थे
बुढापा, बीमारी और दैहिक तापों पर
होकर सवार
चल पड़ते हैं हजारों मेलमील--
दुर्भेद्य उत्तल-अवतल मार्गों पर
सिसकारियों को मुंह में दबोचे
आखिर, क्यों भगवान
त्रास देने लगा दूर जाकारजाकर,अपनी भाविताव्यताभावितव्यता-संभाव्यता से छल-प्रपंच कर्केकरके,
अपनी दिव्यता की चकाचौंध से
आमन्त्रित करने लगा उसे
आह!
इतनी! इतनी!! दूर से !!
खेलता है भगवान हमसे!!!
धकेल देता है--
भर लेता है अपना पेट
मानावाहुति से--
अल्पायु के शूलों वाले खड्ड में
अकस्मात् धकेलकर
लुढकाता रहेगा
उल्काएं हमारी ओर,
फिर भी, हम प्रार्थना करते रहेंगे
उसमें शत-प्रतिशत ध्वंसात्मक ईश्वरत्त्व से,
एक सच्चे झूठ से