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गोश्तखोर / मनोज श्रीवास्तव

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''' गोश्तखोर '''

ताजा-तरीन गोश्त का
लज्ज़तदार लोथड़ा ही
तो हूँ मैं,
इस सौ फीसदी गोश्तखोर देश में
ज़रुरत नहीं है
मुझे दुकान में सजाकर बेचने की,
बस, जहां भी लटका दो--
संसद में, चौक में
मस्जिद में, मंदिर में
भीड़ उमड़ पड़ती है,
संतों, फकीरों, खद्दरधारियों की,
सभी कतार में खड़े-खड़े
मेरी बोटियां नोचने लगते हैं

आरती-अजान की धातुएं
गीता और कुरआन की
दहकती भट्टियों में
तपकर, गलकर
संश्लिष्ट होकर
धारदार छूरियां बनती हैं
मुझे कीमा बनाने के लिए

कोई छद्म गांधी
बोटी-बोटी कतरता है
मुझे उस पीढ़े पर रखकर
जिस पर बैठ
तुलसी ने रचा था 'मानस',
उस खूंटे पर लटकाता है
मेरा लहूलुहान
दस्त, चुस्ता, पुट्ठा और चाप
जिसे ईसा का क्रूस कहते हैं,
उस गीले कपड़े से
ढंकता है मुझे
ताज़ा रखने के लिए
जिसे नानक ने
बतौर शाल ओढ़कर
सिखाया था
असीम प्रेम का
संधि-सबक,
उस तराजू पर तौलता है
मेरे फड़कते हिज्जों को
जिस पर इतिहासजयी विक्रम
अपनी सूक्ष्म परख के
बटखरे से
अपराध के बराबर दंड
निर्दोषिता के बराबर पुरस्कार
तौल-तौल
अपराजेय न्याय किया करता था,
उस स्थान से बेचता है
मेरी लसलसाती कतरनों को
जहां से
'अहिंसा परमो धर्म:'
बुलंद किया था
तथागत ने.