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{{KKRachna
|रचनाकार=संजय चतुर्वेदी
|संग्रह=प्रकाशवर्ष / संजय चतुर्वेदी
}}
<Poem>
सुंदरता हद से ज्यादा है
शरीर इच्छाहीन
आसमान सवाल पूछता है
झील में तैर रहे हैं तारे
पहाड़ी ढलानों से उतरते
चांदनी लड़खड़ाती है
हरे कांच के पेड़ों पर
सफेद धुआं चढ़ता-उतरता है
धरती नीली हो गयी है
फटी हुई आस्तीनों से
मैले हाथ बाहर निकले हैं
उंगलियां ठण्डी पड़ चुकी हैं
बहुत छुड़ाने के बाद भी
नाखूनों पर रंग लगे रह गए थे
वो अब सुख दे रहे हैं
समय सो गया है
लेकिन चिडियों के बच्चे जाग रहे हैं
आज शाम लौटे नहीं उनके मां-बाप
सूखे पत्तों पर किसी के चलने की
आवाज आती है
डर के मारे बोलती बंद है सारे संसार की
सवेरे जब आंख खुलती है
पेड़ के नीचे मरी पड़ी है एक चिडिया
खून का निशान तक नहीं
डर के मारे मर गयी
सूरज धीरे-धीरे डुबो रहा है सारी दुनिया को
अब न वो सुन्दरता है
न वो डर
सब डूब गया है सूरज में
पता नहीं कहां होंगी वे सब चीजें
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{{KKRachna
|रचनाकार=संजय चतुर्वेदी
|संग्रह=प्रकाशवर्ष / संजय चतुर्वेदी
}}
<Poem>
सुंदरता हद से ज्यादा है
शरीर इच्छाहीन
आसमान सवाल पूछता है
झील में तैर रहे हैं तारे
पहाड़ी ढलानों से उतरते
चांदनी लड़खड़ाती है
हरे कांच के पेड़ों पर
सफेद धुआं चढ़ता-उतरता है
धरती नीली हो गयी है
फटी हुई आस्तीनों से
मैले हाथ बाहर निकले हैं
उंगलियां ठण्डी पड़ चुकी हैं
बहुत छुड़ाने के बाद भी
नाखूनों पर रंग लगे रह गए थे
वो अब सुख दे रहे हैं
समय सो गया है
लेकिन चिडियों के बच्चे जाग रहे हैं
आज शाम लौटे नहीं उनके मां-बाप
सूखे पत्तों पर किसी के चलने की
आवाज आती है
डर के मारे बोलती बंद है सारे संसार की
सवेरे जब आंख खुलती है
पेड़ के नीचे मरी पड़ी है एक चिडिया
खून का निशान तक नहीं
डर के मारे मर गयी
सूरज धीरे-धीरे डुबो रहा है सारी दुनिया को
अब न वो सुन्दरता है
न वो डर
सब डूब गया है सूरज में
पता नहीं कहां होंगी वे सब चीजें
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