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|रचनाकार= मनोज श्रीवास्तव
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''' यातना है--खुद को कविता से अलग करना '''

एक दु:सह्य यातना है
कविता को प्रसवित कर
खुद को कविता से अलग करना
और इससे पृथक
अपना स्वरुप पहचानना,
यातना है
अपनी रामकहानी के लिफ़ाफ़े को
दीमकग्रस्त कागजों के बीच दबा
दुनियावी तस्वीरों की चित्रवीथि लगाना

बेहद दुष्कर शल्यक्रिया है
कविता से अपने अक्स को
काट-छांटकर
पके घावों की तरह
निकाल फेंकना--
उन कूड़ों में
जिनमें असामाजिक प्रेमियों के
राग-रोमांस के छीजन तक
इन कटे-फटे घावों के
कतरनों से परहेज़ करते हैं

दस्तावेज़ी सिंहासनों पर
जनसाधारण के लिए
कविताओं का पाठ्याभिषेक करना
कवि की एक आत्मघाती गुस्ताखी है,
जबके सिंहासनारूढ़ कवितायेँ
निर्ममतापूर्वक उसके तनहा अक्स की
अस्मिता पर फब्तियां कसती हैं,
उसे खुद के प्रति संवेदनशून्य होने पर
उसके बौने होते कद को
उन कद्दावरों के सामने प्रस्तुत करती हैं
जिन्हें उसने अपने शब्दों और स्वरों से
इस काबिल बनाया है
कि वे अपने को चतुर्दिक प्रदर्शित कर सकें

बेशक! कितनी बड़ी यातना है
अपनी हस्ती को
कविताओं के हाथों मटियामेट कराना,
कविता की सेहत के लिए
अपनी संक्रमणशील बीमारी को
उससे बचाना
जबकि कविता उससे ही
गर्भावित होकर
जन्मती, पलती और बढ़ती है
जवान होती है
और कलाकार के घातक विषाणु
उसे छू तक नहीं पाते हैं.