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कल शाम हम मिले थे जहां ,
गुलमोहर के पास .
वही गुलमोहर जिसके तले ,
अक्सर मिला करते थे हम .
मैं अब फिर से खड़ा हूँ ,
उसी दरख़्त के करीब ही ,
जहाँ तुने उठा के
अपनी पलकें ,
इस तरह छुड़ाया
कल हाथ अपना ,
जैसे ‘पेन ’ झटक देते हैं
चलते चलते रुक जाए अगर

ना जाने क्यूँ
मुझे उस पल लगा
के वो गुलमोहर
उदास है शायद ….

और अब देखता हूँ तो
वोही गुलमोहर …
एक ही रात में
कितना सुर्ख हो गया है …

लगता है सारी रात
सुलगता ही रहा है
तेरे ख्यालों की बरसात में
जलता ही रहा है ..
मुझे डर है ये कहीं
ख़ुदकुशी ना कर डाले …
</poem>
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