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पलायन / मनोज श्रीवास्तव

9 bytes added, 07:51, 19 जुलाई 2010
<poem>
'''पलायन'''
 
आम आदमी बने रहने की कसक
और उससे पलायन की अथक
कमरतोड कमरतोड़ पसीनेदार मेहनत के बीच
वह आदमी ही बना रहा
जुबान और जूते ही घिसता रहा
कंधे उचका-उचका
सिर हिलाता रहा
माथे पर बर्तानी बलें दे-दे कर देकर अपनी फ्रेंच दाढी से दाढ़ीसे
चेहरे को महिमामंडित करता रहा
आम आदमी से
चित्तरंजक पलायन के
सारगर्भित प्रयासों प्रयास में,
घर से बेघर न होने की
अंतहीन आपाधापी में,
वह 'होने' का सबूत ढूंढता रहा ,
आईन्दा आम आदमी न बने रहने
के हांफते जुनून में
मौत और मात से
जूझता, जूझता
जूझता रहा...
इस क्रांतिकारी जूझन में
छिटककर, बहककर
नुस्खे ही नुस्खे तलाशता रहा
विदेशी प्रजाति के सामान मोलता रहा
'महान' विदेशियों के परित्यक्त जीन्स-पैंट,
ड्राइंगरूम के लिये इम्पोर्टड गुल्दस्ते,
आयातित टोपियां, कलम और घडियां घड़ियाँ
दैहिक-दैविक आस्तियां
तौलता रहा
बेदम होने तक
वाह निचोडनिचोड़-निचोड निचोड़
संभावनाएं तलाशता रहा
पछता-पछता भागता रहा