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परिणति / रमेश कौशिक

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<poem>
आश्वासनों की देहरी पर
कुचली जाती रही
पूरी एक पीढ़ी
और उनमें सभी
एक-दूसरे के लिए
अफ़सोस करते रहे
किंतु किसी ने अपना फन
नहीं उठाया|

चाहते तो उठा सकते थे
एक साथ
हजारों को डस सकते थे
लेकिन
अफ़सोस के सिवा
किसी ने कुछ नहीं किया|

और ऐसे ही
बुझ गया
बिना रीढ़ की पीढ़ी का
दीया |
</poem>
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