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|रचनाकार=लीलाधर मंडलोई
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<poem>

मेरे बचपन में इतवारी बाजार था
एकदम अलग अनुभव के साथ
मैं सौदा-सुलुफ खरीदने के लिए नहीं
उसे बेचने जाता था

मेरे पास दो गज मुफ्त की जमीन थी
जहां मैं जमीन पर
सब्‍जी की दुकान लगाता था
याकि गुड़ की

मेरा इतना रसूख था
कि हर बार मिल जाती थी वही जगह
वह एकदम कोने की थी
जहां तीन रास्‍तों से ग्राहक आते थे

लोग कहते थे कि बड़ी मार्के की जगह वह
और सामान बिक जाता था
सूरज ढलते

वे उसे कब्जियाना चाहते थे
हम भी कोई कम चीज न थे
शाम गए तक बढ़े भावों में
सरका देते थे सामान
कि औने-पौने न बेचना पड़े रात गए

एवज में थोड़ा ईमान ही तो संग में
बेचना था इतवार को
सिपट्टे को जो डंडा फटकारता था
एक देसी ठर्रे की बोतल
एक-दो रूपए
और चना-चबेना

अब इतने में अगर मैं निकाल लेता था
हफ्ते का राशन-पानी घर के लिए
तो इसमें ऐसा क्‍या पाप
कि कुढ्ढता रहूं कि ईमान बिका.
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