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* [[सुख-सुहाग की दिव्य-ज्योति से / नरेन्द्र शर्मा]]
*[[ गँगा, बहती हो क्यूँ ?? / नरेन्द्र शर्मा]]
*[[ माया / नरेन्द्र शर्मा]]
विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ...
निशब्द सदा ,ओ गँगा तुम, बहती हो क्यूँ ??
निशब्द सदा ,ऑ गँगा तुम, बहती हो क्यूँ ??
१९:१४, २७ मई २००८ (UTC)१९:१४, २७ मई २००८ (UTC)१९:१४, २७ मई २००८ (UTC)१९:१४, २७ मई २००८ (UTC)१९:१४, २७ मई २००८ (UTC)१९:१४, २७ मई २००८ (UTC)१९:१४, २७ मई २००८ (UTC)१९:१४, २७ मई २००८ (UTC)१९:१४, २७ मई २००८ (UTC)१९:१४, २७ मई २००८ (UTC)[[विशेष:Contributions/208.102.250.216|208.102.250.216]]
माया
दिखाती पहले धूप रूप की ,
दिखाती फ़िर मट मैली काया !
दुहरी झलक दिखा कर अपनी
मोह - मुक्त कर देती माया !
असम्भाव्य भावी की आशा ,
पूर्ति चरम शास्वत आपूर्ति की ,
ललक कलक में झलक दिखाती
अनासक्त आसक्तिमुर्ति की !
अंत सत्य को सुगम बनातू
हरी की अगम अछूती छाया !
मन में हरी , रसना पर षड- रस ,
अधर धरे मुस्कान सुहानी !
हरी तक उसे नचाती लाती
हरी की जिसने बात न मानी !
शकुन दिखा कर अँध तनय को ,
हरी - माया ने खेल दिखाया !
संग्न्याहत हो या अनात्मारत
आत्म मुग्ध या आत्म प्रपंचक ,
पहुँचाया है हर झूठे को ,
माया ने झूठे के घर तक !
लगन लगा कर , मोह मगन को ,
मृग लाल , जल निधि पार कराया !
अंहकार को निराधार कर ,
निरंकार के सम्मुख लाती !
गिरिजापति का मान बढ़ाने
रति के पति को भस्म कराती !
नेह लगाया यदि माया से ,
निज को खो , हरी - हर को पाया !
अपनी समझ लिए हर कोई ,
करता रहता तेरी - मेरी !
वोह अनेक जन मन विलासिनी
एक मात्र श्री हरी की चेरी !
मैंने इस सहस्ररूपा को ,
राममयी कह शीश झुकाया !
सँरचना : स्व. पँ. नरेन्द्र शर्मा / सँकलन : लावण्या
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