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Kavita Kosh से
गुलामी का गम बहाते हुए
और हवा की सेज पर लेटे हुए
खुद से फुसाफुसाते फुसफुसाते हुए कि--
हमने खून से आजादी को सींचा था,
सोचा था इस छायादार पेड पेड़ के नीचे
अमन-चैन की बयार बहेगी
साफ-सुथरी आबोहावा में
आदमी उगेंगे,
गुमसुम भूतों की सफेद आंखों में
अफसोस के बादल घुमडते घुमड़ते हुए
इंडिया गेट के ऊपर पसर जाते हैं
जैसे जनाजे को कफन से ढक ढँक दिया गया हो
आखिर, ऐसा आलम क्यों हैं,
भूत खुश क्यों नहीं हैं