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मनुवादी-दो / मुकेश मानस

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<poem>

अब वह सीधे-सीधे नहीं पूछ्ता
मुझसे मेरी जाति
मगर कभी न कभी
किसी न किसी बात में
वह खोज ही लेता है मेरी जाति

फिर बदल जाती है उसकी दृष्टि
बदल जाता है उसका व्यवहार
घ्रणास्पद दृष्टि से देखता है
मेरे समूचे जिस्म और मेरी प्रतिभा को
तौलने लगता है वह मुझे
अपनी मान्यताओं और पूर्वाग्रहों से

तब उसके लिये मेरा अस्तित्व
मेरी आशा-निराशा
सपने और संघर्ष
ये जरूरी बातें तमाम
बेमानी हो जाती हैं

फिर मैं उसके लिये
कोई इंसान नहीं रहता

एक जाति हो जाता हूँ

जाति
जो अशिष्ट है
जाति
जो अयोग्य है
जाति
जो इंसानी हक़ों के लायक ही नहीं।
2002




<poem>
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