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विवश वृक्ष / अशोक लव

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नदी की लहरों ने
अपने स्पर्शों से
किनारे खड़े वृक्ष में भर दिए
प्राण,
पुनर्जीवित हो उठा वृक्ष
हरे हो गए पत्ते
चहकने लगी टहनियाँ

लहरों की प्रतीक्षा में
अपलक निहारता है दूर-दूर तक
मौन तपस्वी सा,
संबल बनी नदी
बदल ना ले मार्ग अपना
सोच सोच
कांप कांप उठता है वृक्ष

उछलती कूदती आती हैं नदी की लहरें
छूकर भाग जाती हैं नदी की लहरें
वृक्ष भी चल पाता
तो चलता दूर तक नदी के संग
विवश वृक्ष केवल सुनता रहता है
लौटती नदी की पदचापें
</poem>
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