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लाल किला / मनोज श्रीवास्तव

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कंकड़ीले काल-पथ पर खड़ा
कायान्तरण के दमनकारी झंझावात में
ऐतिहासिक होने पर अदाअड़ा
मौलिकता का मोहताज़
मैं--एक मारियाल नपुंसक घोडा घोड़ा हूं
साल में एकाध बार
बेशकीमती साज-सामान
कौड़ी के भाव इन्सान
और बहुरुपी बहुरूपिये विदेशीपन के नाम पर ईमान,यहां धेरों ढेरों लगती है दुकानेंजबके तेधी जबकि टेढ़ी खीर है
क्रेता-विक्रेता की करनी पहचान
क्योंकि यहां ग्राहक भी
ठुमकते क्रीड़ारत बच्चों
ऐंठते-अकड़ते जवानों
बैसाखियाँ थामे बूढों बूढ़ों जैसे
गुजरते,गुजरते गुजरते हुए
और देखा है काल-वलय को