|संग्रह=
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{{KKCatKavita}}{{KKCatNavgeet}}<poem>कितनी बार तुम्हें देखा<br>पर आँखें नहीं भरीं।<br><br>
सीमित उर में चिर-असीम<br>सौंदर्य समा न सका<br>बीन-मुग्ध बेसुध-कुरंग<br>मन रोके नहीं रुका<br>यों तो कई बार पी-पीकर<br>जी भर गया छका<br>एक बूँद थी, किंतु,<br>कि जिसकी तृष्णा नहीं मरी।<br>कितनी बार तुम्हें देखा<br>पर आँखें नहीं भरीं।<br><br>
शब्द, रूप, रस, गंध तुम्हारी<br>कण-कण में बिखरी<br>मिलन साँझ की लाज सुनहरी<br>ऊषा बन निखरी,<br>हाय, गूँथने के ही क्रम में<br>कलिका खिली, झरी<br>भर-भर हारी, किंतु रह गई<br>रीती ही गगरी।<br>कितनी बार तुम्हें देखा<br>पर आँखें नहीं भरीं। <br><br/poem>